सात अक्टूबर 1965। यही वह दिन है जब दुश्मन देश पाकिस्तान को पस्त कर हमारे जाबांजों ने नौशेरा सेक्टर में ओपी हिल (OP Hill) पर अपना अधिपत्य कर लिया था। सूबेदार जय सिंह भी उसी मिशन में शामिल थे। इससे पहले वह 1962 में चीन और बाद में 1971 में पाकिस्तान संग हुई लड़ाई में अपनी माटी के लिए डटे थे।
1965 war सात अक्टूबर 1965 को दुश्मन देश पाकिस्तान को पस्त कर 14 कुमाऊं के जाबांजों ने नौशेरा सेक्टर में ओपी हिल (OP Hill) पर अपना अधिपत्य कर लिया था। इस मिशन को सफल बनाने की जिम्मेदारी 14 कुमाऊं के सैनिकों को ही मिली थी।
विषम भौगोलिक परिस्थितियों में देश की सुरक्षा के लिए दिखाए इस अदम्य साहस के कारण ही सात अक्टूबर को ओपी हिल युद्ध सम्मान दिवस मनाना शुरू किया गया।
14 कुमाऊं बटालियन ने खदेड़ा दुश्मनों को
1965 में पाकिस्तानी सेना बकरी पालकों के रूप में घुसपैठ कर जम्मू-कश्मीर के नौशेरा सेक्टर में ओपी हिल तक आ घुसी थी। 14 कुमाऊं के बटालियन ने ओपी हिल में बकरी पालकों के रूप में घुसे दुश्मनों को खदेड़ा। कई दुश्मनों को हिरासत में भी लिया।
वर्तमान में शांतिपुरी और मूलरूप से बागेश्वर के रहने वाले सूबेदार जय सिंह ने बताया कि ओपी हिल से दुश्मनों को खदेड़ने का टास्क 14 कुमाऊं (अब 5 मैकेनाइज्ड इंफेंट्री) को ही मिला था। तब ओपी हिल का कोड अल्मोड़ा हिल था। तब हाथ में थ्री नाट थ्री राइफल लेकर 24 घंटे से ज्यादा पैदल चले और दुश्मनों को भगाकर ही दम लिया।
उम्र का पड़ाव भले काफी आगे निकल गया, लेकिन एक सैनिक का जज्बा सेवा खत्म होने के बाद भी सेवानिवृत्त नहीं होता। सूबेदार जय सिंह के बोलने के लहजे से यह साबित हो रहा था।
देवभूमि के सैनिलों का बलिदान है अमर
बागेश्वर और वर्तमान में सितारगंज में रह रहे देवी दत्त तिवारी भी 1965 के युद्ध में हिस्सा लेने वाले सैनिकों में शामिल हैं। हवलदार पद से रिटायर शर्मा ने बताया कि नौशेरा सेक्टर में तैनाती के दौरान ओपी हिल से पाक घुसपैठियों को कब्जा छुड़वाने का आदेश मिला था।
उस समय कंपनी कमांडर के तौर पर इंद्रजीत सिंह बोरा का नेतृत्व मिला। तब युद्ध में घायल हुए कई साथियों को उपचार के लिए बेस कैंप लाने की जिम्मेदारी भी निभाई। वहीं, सूबेदार जय सिंह के अनुसार उस दौरान 11 साथी लापता भी हो गए थे। इन तमाम विपरीत हालातों के बीच भारत की सेना डटी रही और मिशन को पूरा किया।
बेटे का चेहरा भी न देख सके थे बलिदानी गिरधर
62 की जंग में पिथौरागढ़ निवासी गिरधर चंद ने भी बलिदान दिया था। सम्मान समारोह में हिस्सा लेने को उनकी बेटी पुष्पा चंद पहाड़ से हल्द्वानी आई थी। पुष्पा ने बताया कि पिता के बलिदान के वक्त उनकी उम्र एक साल थी।
बड़ा भाई गिरीश पांच साल का था जबकि मां के गर्भवती होने की वजह से छोटा भाई भगवान पेट में ही था। यानी देश की सुरक्षा को सर्वोच्च बलिदान देने वाले हवलदार गिरधर चंद अपने तीसरे बच्चे का चेहरा तक नहीं देख सके।
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